सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रालय की 100 मीटर अरावली परिभाषा ठुकराई, बताया कि इससे अरावली की पहचान खतरे में

 नई दिल्ली
अरावली पर्वतमाला की परिभाषा को लेकर केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट और उसके द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के बीच गंभीर मतभेद सामने आए हैं। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित 100 मीटर ऊंचाई आधारित अरावली परिभाषा को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर लिया, जबकि अदालत की अपनी ही संस्था सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी (CEC)ने इस परिभाषा का समर्थन नहीं किया था। 13 अक्टूबर को मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अरावली की नई परिभाषा पेश की थी।

इसके ठीक अगले दिन, 14 अक्टूबर को सीईसी ने पीठ की सहायता कर रहे एमिकस क्यूरी के परमेश्वर को पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि इस परिभाषा की न तो जांच की गई है और न ही इसे सीईसी की मंजूरी प्राप्त है। इसके बावजूद, 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रालय की 100 मीटर परिभाषा को स्वीकार कर लिया।

CEC को सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में पर्यावरण और वन संबंधी आदेशों के अनुपालन की निगरानी के लिए गठित किया था। इसने साफ तौर पर कहा कि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) द्वारा तैयार की गई परिभाषा को ही अपनाया जाना चाहिए, ताकि अरावली की पारिस्थितिकी और भौगोलिक अखंडता की रक्षा हो सके। FSI ने वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अरावली का विस्तृत सर्वे किया था। इसमें राजस्थान के 15 जिलों में 40,481 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अरावली के रूप में चिह्नित किया गया था। इस परिभाषा में कम से कम 3 डिग्री ढलान और न्यूनतम ऊंचाई वाले क्षेत्रों को शामिल किया गया था, जिससे छोटी और निचली पहाड़ियां भी संरक्षित रहतीं।

100 मीटर परिभाषा पर गंभीर आपत्तियां

एमिकस क्यूरी के परमेश्वर ने अदालत में प्रस्तुत एक पावरपॉइंट प्रेज़ेंटेशन में मंत्रालय की 100 मीटर परिभाषा को अस्पष्ट और खतरनाक बताया। उन्होंने कहा कि इस परिभाषा से अरावली की भौगोलिक पहचान टूट जाएगी। कई छोटी पहाड़ियां अरावली के दायरे से बाहर हो जाएंगी। इन क्षेत्रों को खनन के लिए खोला जा सकेगा। इसका सीधा असर पारिस्थितिकी पर पड़ेगा और थार मरुस्थल का विस्तार पूर्व की ओर हो सकता है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि 100 मीटर की सीमा लागू होने पर अरावली की निरंतरता समाप्त हो जाएगी और इसे संरक्षित भौगोलिक इकाई के रूप में नहीं बचाया जा सकेगा।

CEC ने मंत्रालय के दावे को बताया भ्रामक

CEC अध्यक्ष और पूर्व महानिदेशक (वन) सिद्धांत दास ने 14 अक्टूबर के पत्र में कहा कि मंत्रालय द्वारा दायर हलफनामे में जिन विचारों को CEC का बताया गया है वे वास्तव में CEC सदस्य डॉ. जे.आर. भट्ट के व्यक्तिगत विचार हैं, न कि समिति के। पत्र में यह भी कहा गया कि समिति की बैठक (3 अक्टूबर) के मसौदा कार्यवृत्त CEC को कभी सौंपे ही नहीं गए। मंत्रालय की रिपोर्ट पर CEC ने कोई औपचारिक समीक्षा नहीं की। मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट हस्ताक्षरित भी नहीं थी। CEC ने दोहराया कि उसकी स्पष्ट राय है कि FSI की परिभाषा को ही अपनाया जाना चाहिए।

FSI का आंतरिक आकलन और विरोधाभास

FSI ने एक ट्वीट में मीडिया रिपोर्ट्स का खंडन किया कि 90% अरावली पहाड़ियां असुरक्षित हो जाएंगी, लेकिन एक आंतरिक आकलन के अनुसार, 20 मीटर या उससे ऊंची 12,081 अरावली पहाड़ियों में से 91.3% और कुल 1,18,575 पहाड़ियों में से 99% से अधिक 100 मीटर की परिभाषा में शामिल ही नहीं होंगी। 20 मीटर ऊंचाई की पहाड़ियां भी प्राकृतिक विंड बैरियर के रूप में अहम भूमिका निभाती हैं।

मंत्री का दावा और सवाल

पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि अरावली क्षेत्र के केवल 0.19% हिस्से (278 वर्ग किमी) में ही खनन की अनुमति है। लेकिन मंत्रालय के अपने आंकड़े बताते हैं कि यह क्षेत्र पहले से ही राजस्थान, हरियाणा और गुजरात में खनन के अंतर्गत है। अब तक मंत्रालय यह स्पष्ट नहीं कर पाया है कि 100 मीटर परिभाषा लागू होने के बाद निचले अरावली क्षेत्रों में भविष्य में खनन और विकास को कैसे रोका जाएगा। इसके अलावा, जमीन पर सीमांकन अभी हुआ भी नहीं है, ऐसे में यह भी सवाल बना हुआ है कि मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट को कैसे आश्वस्त किया कि 100 मीटर परिभाषा से अधिक क्षेत्र अरावली में आएगा, जबकि FSI की 3 डिग्री ढलान वाली परिभाषा पहले से ही व्यापक थी।

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